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Wednesday, September 07, 2011

गरीबी (ज़ले हर रोज़ बिन शोले).......


गरीबी समाज की बहुत बड़ी मर्ज़ है,इसे बचपन से देखा है.गरीब परिवार में पला-बढ़ा हूँ इसलिये इसे अच्छे से समझ सकता हूँ,पर शुक्रगुज़ार हूँ खुदा का जिसने मुझे इतने महान माँजी और बाबूजी दिये जिनके त्याग और बलिदान की वजह से मैं इस काबिल बना कि आज इस दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा हूँ. बस खुदा से यही गुज़ारिश है, हे खुदा ! ये दुनिया तुम्हारी औलाद है इस जहां से गरीबी मिटा दे...सब खुश रहें... आमीन...














नयन के नीर, हैं गम्भीर,
सुनाये पीर, बिन बोले.
दहकता दिल का हर कोना,
पड़े हर ज़ख़्म पे ओले.
रगों में दौड़ता इक खौफ़,
बांहें मौत का खोले.
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

है सूखी आँत किस्मत की,
धमनियाँ फ़टती मेहनत की,
ज़ो रोये, अस्क ना बहते,
ना मोल इसके अस्मत की,
ये जीवन है कड़कती ठंढ़,
अधर बस काँपे, ना बोलें,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

यहाँ भटके, वहाँ भटके,
जले है पेट की खातिर,
पड़े है आँत में छाले,
मिले बस भूख ही आखिर,
गरीबी है बड़ी ज़ालिम,
तमाशा मौत का खेले,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.


खुशी तो इसके हिस्से में,
ना आयी थी, ना है आयी,
गरीबी दु:ख का है साया,
है फ़ंदा इसकी परछाई,
खुदा है आरज़ू मेरी,
मिटा इसको, इसे ले ले,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

          सुरेश कुमार
          ०७/०९/२०११

4 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर

S.N SHUKLA said...

ख़ूबसूरत , बहुत सुन्दर प्रस्तुति , बधाई

अभिषेक मिश्र said...

वास्तविकता के करीब हैं पंक्तियाँ.

रेखा said...

यथार्थ के धरातल पर लिखी गई रचना ...