क्यों दिखता है ये अधूरापन ?
पर्वतों से गिरते झरनों के पानी,
आगे बढ़ते ही नही, थम जाते है,
हवायें बहती है, मेरे करीब आती नही,
दिये जलते है पर घर-आँगन में अंधेरा
छाया है, इक सन्नाटे की आवाज़
मेरे कान के पर्दे को चीर रही है,
मेरी चीखें मुझ तक ही गूँज
रही है, किसी को सुनाई नही देती,
मेरी परछाई कड़क धूप में मेरे
संग नही, अदृश्य है,
समंदर के किनारे दौड़ता हूँ पर
मेरे पदचिह्न दिखते ही नही,
ये कैसा शून्य-तनन है संवेदन ?
बेज़ान धड़कती क्यों धड़कन ?
क्यों दिखता है ये अधूरापन ?
सुरेश कुमार
२६/१२/११
पर्वतों से गिरते झरनों के पानी,
आगे बढ़ते ही नही, थम जाते है,
हवायें बहती है, मेरे करीब आती नही,
दिये जलते है पर घर-आँगन में अंधेरा
छाया है, इक सन्नाटे की आवाज़
मेरे कान के पर्दे को चीर रही है,
मेरी चीखें मुझ तक ही गूँज
रही है, किसी को सुनाई नही देती,
मेरी परछाई कड़क धूप में मेरे
संग नही, अदृश्य है,
समंदर के किनारे दौड़ता हूँ पर
मेरे पदचिह्न दिखते ही नही,
ये कैसा शून्य-तनन है संवेदन ?
बेज़ान धड़कती क्यों धड़कन ?
क्यों दिखता है ये अधूरापन ?
सुरेश कुमार
२६/१२/११
2 comments:
गहरी अभिव्यक्ति ...
बेहतरीन........आपको नववर्ष की शुभकामनायें
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