कुंठित मन की कुंठा मन में कूट-कूट कुम्ह्लाती है.
विषम विदाई की घड़ी, निकट मेरे जब आती है..
क्षण भर की भी दूरी जो, मन को मेरे स्पर्श करे.
हरी - भरी धरती ये मन की, बंजर सी हो जाती है..
उन्मोदित उल्लेखन उनका, सारी उमर मै करता हूं.
पुलकित पुष्प की पुष्पसुगंधा, जीवन अर्पित करता हूं..
जीवनरुपी धारा मे सहज-सरल बह चलता हूं.
संवेदन संपूर्ण संगिनी, तुम्हे समर्पित करता हूं...
कण-कण मे कंठस्त हुई तुम, कमल-कुमुदनी कार्यसंगिनी.
करुणामयी ये काया तेरी, बसी हृदय में हृदयरागिनी..
मंत्रमुग्ध, मदमस्त ये मौसम मन-मोहित कर लेता है..
मधुबेला मे मधुर मिलन, अगर तेरा हो मनमोहिनी...
विचारों के विश्लेषण में, सिर्फ उनका ही व्याख्यान रहे..
धरा-गगन, एकांत इस मन में केवल उनका ध्यान रहे...
प्रियतमा प्यारी प्रेम प्रतिज्ञा प्रियवर की याद सताती है...
कौतूहल कोलाहल में भी तन्हा सी कर जाती है...
विषम विदाई की घड़ी, निकट मेरे जब आती है..
कुंठित मन की कुंठा मन में कूट-कूट कुम्ह्लाती है....
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मेरी अर्धांगिनी शिल्पी रंजन को समर्पित...
रचयिता: सुरेश कुमार
5 comments:
One of my best poem I have written....
Kavita dil se likhi gai hai, sirf dimag se hi nahin, tabhi tumhari chuninda kavitaon mein se ek.
Magar 'Kunthit' ki jagah 'Vyakul' jyada upyukt nahin hota ! Kunthit negativity dikhlata hai.
Dil mein ubharte bhavon ko kagaj par utarane mein aisi hi kavita ubhar kar aati hai. Congrats.
Magar kya 'Kunthit' ki jagah 'Vyakul' jyada uchit nahin hota ! Mujhe thoda negativity liye lag raha hai yeh shabd.
सुंदर भावाभिव्यक्ति।
Manoj Kumar Ji bahut-bahut dhanyabaad..
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