तू जिस दुनिया में रहता है, वहां सुकूं ही नहीं,
इच्छाओं का जहाँ क्षण-प्रतिक्षण, बदलाव होता है,वक्त तेरी पहुंच से भी कही ज्यादा, दूर खड़ा है,
फ़िर भी कम्बख़्त, तू वक्त को पकड़ने चला है. [१]
नयनों को धूल-धूसित कर, खुद अन्धा बन गया है,
मन के चक्र को, सहसा बिन पहिये दौड़ा रहा है,
उम्मीद के पंछियों को, नाकामी से उड़ा दिया तुमने,
फ़िर भी कम्बख़्त, उन पंछियों को पकड़ने चला है. [२]तू अपनी कमजोरियों को, गले से लगाये बैठा है,
वक्त-दरवक्त यूं बेवक्त होता जा रहा है,
तू श्रमहीन, कर्महीन, उद्देश्यविहीन हो गया है,
फ़िर भी कम्बख़्त, कामयाबी को पकड़ने चला है. [३]
तुमने कसकर, दिलो जान से मुट्ठी बांध ली,
पकड़ना चाहता ऐसे, कि जैसे फ़िर ना छोड़ेगा,
मगर ये क्या, तेरी सारी ख़्वाइशें तो बिमार हैं,
फ़िर भी कम्बख़्त, रेत को पकड़ने चला है. [४]
......गर पकड़ना है तो अपनी उड़ती इच्छाओ को पकड़,
......और लग जा पूरे मन से उन्हें पूरा करने में,
......फ़िर देख बन्दे क्या होता है ????
8 comments:
तू अपनी कमजोरियों को, गले से लगाये बैठा है,
वक्त-दरवक्त यूं बेवक्त होता जा रहा है,
तू श्रमहीन, कर्महीन, उद्देश्यविहीन हो गया है,
फ़िर भी कम्बख़्त, कामयाबी को पकड़ने चला
...bahut badiya preraprad rachna...
Kavita Ji bahut - bahut dhanyawad...
swagat hai aapaka mere blog par...
bhaut hi sarthak abhivaykti....
Sagar Ji...Dhanyawaad..
बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति , बहुत सुन्दर
S.N.Shukla ji...dhanyawaad..
mere blog pe swaagat hai aapaka..
behtreen abhivaykti....
Sushama ji..happy to see ur complement...thank you..
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