कभी-कभी ही सही,
मेरे खयालों में आ जाया भी करो.
मेरे सूखे जहां को,
खूश्बू-ए-इश्क से महकाया भी करो.
तेरी परछाई मुझपे हो तो,
खुदको पाक़ समझूंगा.
कभी-कभी ही सही,
बनके घटा, यूँ छाया भी करो.
प्रज्वलित हुआ हूँ,
इश्क की ज्वाला में ऐ हमदम.
जलने दो अंत तक,
इसे यूँ बुझाया भी ना करो.
कांपता हूँ रात-दिन,
तन्हाईयों की ठंढ में,
कभी-कभी ही सही,
धूप-ए-मोहब्ब़त दे जाया भी करो.
तेरा दीदार जिस पल हो,
वो लम्हा मै चुरा लूंगा.
तू मेरा ख्वाब है हमदम,
जिस्म-ए-रूह बना लूंगा.
तुझे गर पा सकूं तो,
खुद को मै भी इश्क समझूंगा.
कभी कभी ही सही,
मुझे इश्क बुलाया भी करो.
सुरेश कुमार
०२/०९/२०११
5 comments:
वाह ....बहुत खूब. सुन्दर अभिव्यक्ति ...
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बहुत सुन्दर.
बढ़िया...
शुभकामनाएं...
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