मैं मालिक हूँ तुम सब का,
मैने तुम्हे बनाया है.
भेजा अपना अंश समझकर,
पर कुछ और ही पाया है.
चौरासी लाख योनियों में,
उच्च श्रेणी है तुम्हे दिया.
पर कर्तव्य तुम्हारे ऐसे,
तुमने खुद को तुच्छ किया.
नित-प्रतिदिन बदलाव तुम्हारा,
मेरे शोक का कारण है.
अब तुम ऐसी मर्ज़ बने,
जिसका ना कोई निवारण है.
इस धरती की गोंद में,
तुम फले-फूले, इंसान बने.
आज ये धरती कराह रही,
तुम कैसे हैवान बने ?
प्रकृति का ये आंचल,
क्षण-प्रतिक्षण तुमपर रहा.
आंचल भी इसका फाड़ रहे,
हे मानव तुमने क्या किया ?
अपने हर जनम में मैंने,
असुरों का संहार किया,
मैने मानव तुम्हे बनाया,
तुमने असुरों का रूप लिया.कभी सुनामी, कभी भुकम्प,
ये मेरे ही अवतार है,
श्रृष्टि खत्म तुम्हारी होगी,
शुरू मानव-संहार है.
जीवन-मृत्यु कथन सत्य,
शायद तुम ये भूल रहे.
कितने भूखे- कितने प्यासे,
अपने ही आप को लील रहे.
गर ना सुधरे, गर ना संभले,
औंधे मुह गिर जाओगे.
प्रकृति भी लात मारेगी,
धरती पे जगह ना पाओगे.
सबकुछ ज्ञात तुम्हे है फिर भी,
बीभत्स रूप लिये मौन हो.
मैने तुमको क्या बनाया,
हे मानव तुम कौन हो???
सुरेश कुमार
३०/०८/२०११
2 comments:
बहुत खूब....अब ऐसा लग रहा है की सुरेश सच में कठोर सत्य को अपने सरल शब्दों में रख रहा है...your one of the bests
दिल को छू गए आपकी रचना के भाव ... भावपूर्ण रचना...
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