सुबह क्यों आज़ ना आयी, मेरे घर पे ये तन्हाई,
कहीं मेरी खुशी ने, उसे मीलों दूर खदेड़ा तो नहीं,
जो समझा अपनी और अपने वक्त की अहमियत,
तो एकांत में ये मन, अक्सर मुस्करा देता है......१
चिलचिलाती गर्मी में भी, ठिठुरने लगा था,
मेरी उम्मीदें, संकीर्ण हो गयी, कहीं खो गयी,
जो उम्मीद की रोशनी, मेरे मन पर पड़ गयी.
तो एकांत में ये मन, अक्सर मुस्करा देता है......२
मेरे इर्द-गिर्द सागर, फ़िर भी प्यास ना बुझती,
भूल गया, मेरी प्यास, ओस की बूंदें बुझाती हैं,
जो ओस की बूंदों को मुट्ठी में भर लिया,
तो एकांत में ये मन, अक्सर मुस्करा देता है......३
वक्त की मार से सभी रोते, मैं भी रोता,
हो गया अनभिज्ञ, उसी कतार में शामिल होता,
जो आज़, सुकून की, इक कतार बना दी,
तो एकांत में ये मन, अक्सर मुस्करा देता है......४
6 comments:
मेरे इर्द-गिर्द सागर, फ़िर भी प्यास ना बुझती,
भूल गया, मेरी प्यास, ओस की बूंदें बुझाती हैं,
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति।
dhanyawaad Manoj ji..
sundar abhivyakti
खुबसूरत अभिवयक्ति...
ekant man ki sunder abhivaykti....
@ Shri S.N.Shukla Ji
@ Sushama Ji
@ Sagara Ji
aap sabhi ko namaskaar...mere patangrupee hausale ko aur upar udane ke liye bahut bahut dhanyawaad...
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