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Wednesday, July 27, 2011

ये पत्थर भी कुछ कहते है.........


ये पत्थर जो, हिमालय की चोटियों मे रहते हैं.

पृथ्वी की असहनीय कम्पन से, टूट जाते हैं.

टूटकर कम्पन से ये गंगा की गोंद में समा जाते हैं,

और होकर अनभिज्ञ, सुदूर भ्रमण को निकलते है,

जरा गौर से देखो, ये पत्थर भी कुछ कहते है.[१]



टुकड़ों में विभाजित होकर, अपनों ने अलग हो जाते है,

अपनों से अलग होकर, ये भी बहुत घबराते हैं.

चलना इनकी मजबूरी है,अपनो से अलग हो चलते हैं,

बड़ों को पीछे छोड़, छोटे आगे तेज़ निकलते हैं

जरा गौर से देखो, ये पत्थर भी कुछ कहते है.[२]



छोटे पत्थर,प्यारे पत्थर कितने हैं मासूम,

कौन है अपना कौन पराया, नही इन्हे मालूम.

होकर पंजाब, यू.पी. से, बंगाल की खाड़ी को ये निकलते हैं.

जरा गौर से देखो, ये पत्थर भी कुछ कहते है.[३]



चल-चलकर ये थक जाते, ना लेते कहीं आराम,

इतने विशाल समन्दर में,करना पड़ता इनको कितना काम,

पल-पल अपने ऊपर, अनगिनत पत्थरों का भार सहते हैं

जरा गौर से देखो, ये पत्थर भी कुछ कहते है.[४]



इन्हे सिर्फ़ पत्थर ना समझो, ये मानव जीवन को दर्शाते हैं,

जीवन की असीमित गति को, ये पत्थर खूब बताते हैं.

फ़र्क सिर्फ़ इतना है, ये गंगा में बहकर, बंगाल की खाड़ी को जाते हैं,

और हम, समुद्ररूपी जीवन में बहकर, गंगा में समा जाते हैं.

जरा गौर से देखो, ये पत्थर भी कुछ कहते है.[५]

                                                                                                  - सुरेश कुमार

                                                                                                      भूवैज्ञानिक


7 comments:

Suresh Kumar said...

यह कविता मेरे विषय भूगर्भ-विज्ञान को समर्पित है.....

अभिषेक मिश्र said...

काफी समय बाद इसे पढकर अच्छा लगा.

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