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Wednesday, September 28, 2011

रूप-स्वरूप-दिल-ए-ख्वाइश....

ना अंजन, ना श्रृंगार, अद्भुत तेरी सौन्दर्य छटा,
तन यौवन का चरमबिन्दु, अधर खुले, बरसे घटा,
बंद पलक में निशा बसे, खुली पलक में भोर,
हृदय-मुग्ध करती हो प्रतिपल, इत-उत व चहुँ ओर.[१]


बिन घुँघरू पग अतिशोभित, बिन कंगन ये हस्त,
प्रकृति-अंश समान ये काया, करे सदा मदमस्त,
मनु तुम-पर मन से मरा, इतना सुन्दर रूप,
तुम सावन हो, तुम बरखा, तुम हो रति स्वरूप. [२]


*****************************************


मैं देखूँ इश्क की गलियाँ, मुझे ऐसी नज़र दे दो,
छुपालो अपनी आँखों में, सुकूँ की इक बसर दे दो.
मैं राही हूँ मोहब्ब्त का, मोहब्बत रग में बसती है.
चलो अब साथ बस मेरे, कसम ये हमसफ़र दे दो. [३]


खुश्बू-ए-इश्क के पंछी, चलो हम साथ उड़ जायें,
जहाँ हो अन्त लम्हों का, वहाँ जाकर ठहर जायें,
बसायें आशियान इक, मोहब्बत नाम हो उसका,
हम जीते है मोहब्ब्त में, मोहब्बत में गुज़र जायें. [४]


                                                                                            सुरेश कुमार
                                                             २८/०९/२०११

Sunday, September 11, 2011

तुम बिन मेरी परिभाषा.....














विरह, वेदना, क्रन्दन,
रोता, बिलखता अबोध मन,
अप्रत्यक्ष जीवन,
उत्कंठित नयन,
मृत इच्छा उद्बोधन,
चहु दिशा अप्रसन्न,
मुर्झाया उपवन,
शून्य-तनन-संवेदन,
यथासमय शिरश्छेदन,
मत-भ्रमित अवलोकन,
उत्सावाग्नि चुभन,
अभिलाषा अभिशून्यन,
भावशून्य अध्यर्थन,
पराकष्ठा ठिठुरन,
दिशाहीन अन्तर्मन,
गहन तिमिर संचयन,
सर्वसुख समापन,
हर्षविहीन नव दुल्हन,
आत्म-सुख निरन्तर दहन,
प्राणप्रिये !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
यही है......................
तुम बिन मेरी परिभाषा.

                  सुरेश कुमार
                  ११/०९/२०११

Wednesday, September 07, 2011

गरीबी (ज़ले हर रोज़ बिन शोले).......


गरीबी समाज की बहुत बड़ी मर्ज़ है,इसे बचपन से देखा है.गरीब परिवार में पला-बढ़ा हूँ इसलिये इसे अच्छे से समझ सकता हूँ,पर शुक्रगुज़ार हूँ खुदा का जिसने मुझे इतने महान माँजी और बाबूजी दिये जिनके त्याग और बलिदान की वजह से मैं इस काबिल बना कि आज इस दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा हूँ. बस खुदा से यही गुज़ारिश है, हे खुदा ! ये दुनिया तुम्हारी औलाद है इस जहां से गरीबी मिटा दे...सब खुश रहें... आमीन...














नयन के नीर, हैं गम्भीर,
सुनाये पीर, बिन बोले.
दहकता दिल का हर कोना,
पड़े हर ज़ख़्म पे ओले.
रगों में दौड़ता इक खौफ़,
बांहें मौत का खोले.
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

है सूखी आँत किस्मत की,
धमनियाँ फ़टती मेहनत की,
ज़ो रोये, अस्क ना बहते,
ना मोल इसके अस्मत की,
ये जीवन है कड़कती ठंढ़,
अधर बस काँपे, ना बोलें,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

यहाँ भटके, वहाँ भटके,
जले है पेट की खातिर,
पड़े है आँत में छाले,
मिले बस भूख ही आखिर,
गरीबी है बड़ी ज़ालिम,
तमाशा मौत का खेले,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.


खुशी तो इसके हिस्से में,
ना आयी थी, ना है आयी,
गरीबी दु:ख का है साया,
है फ़ंदा इसकी परछाई,
खुदा है आरज़ू मेरी,
मिटा इसको, इसे ले ले,
ये दरिया है गरीबी का,
ज़ले हर रोज़ बिन शोले.

          सुरेश कुमार
          ०७/०९/२०११

Monday, September 05, 2011

है गुरुजन को सत-सत नमन....

समस्त गुरुजन को समर्पित...
(आपका जलाया हुआ दीप आज जगमगा रहा है गुरुजन)..

है गुरुजन को सत-सत नमन,
प्रज्वलित हुआ है जिनके लौ से,
दृष्टिकोण और अंतर्मन.
है गुरुजन को सत-सत नमन.


हाथ थामकर राह दिखाई,
शीर्षलम्ब उद्देश्य दिया,
इत्र-उत्र-सर्वत्र हे गुरुजन,
जीवन को सर्वोच्च किया.
दिया है इन नयनों को तुमने,
दूरदृष्टि का अंजन.
है गुरुजन को सत-सत नमन.


तुम मात-पिता, तुम सखा समान,
हे गुरुजन तुम, प्रेरितिक महान,
देवत्वारोपण तन-मन से,
तुम इश्वर हो, तुम भगवान.
सर्व सफलता तुमको अर्पण,
कहे "सुरेश" यह सत्य कथन.
है गुरुजन को सत-सत नमन.

                           सुरेश कुमार
                            ०५/०९/२०११


Sunday, September 04, 2011

मैं ढूढ रहा उस लम्हे को....
















मैने अभी लिखा नहीं,
जो अंतर्मन को दिखा नही,
मैं ढूढ रहा उस लम्हे को,
जो अधियारों मे छुपा कहीं.

कलम उठाता हूँ लिखने को,
भाव निकल भी आते है.
हस्त कलम संग कम्पित होते,
शब्द उमड़ नही पाते है.
मै सोच रहा उसे प्रतिपल,
जो मुझमें होकर मिला नही.
मैं ढूढ रहा उस लम्हे को,
जो अधियारों मे छुपा कहीं.

कलम ज़वां, स्याही परिपूर्ण,
लेखन अभिलाषा संपूर्ण,
इत-उत बैठूँ लिखने को,
पर हो जाता हूँ शब्द शून्य.
मैं खोज रहा उन शब्दों को,
जो शब्दकोश में है ही नही.
मैं ढूढ रहा उस लम्हे को,
जो अधियारों मे छुपा कहीं.

पग रखता हूँ पगडंडी पर,
पदचिह्नो की आशा लिये.
उस लम्हे को मैं दिख जाऊँ,
उसकी अभिलाषा लिये.
हैरां हो जाता हूँ हरदम,
पदचिह्न मिलते ही नही.
मैं ढूढ रहा उस लम्हे को,
जो अधियारों मे छुपा कहीं.

तुझको पाने की जिद्द है,
तुझमें खो जाने की जिद्द है.
नित-प्रतिदिन जिज्ञासा बढ़ती,
शब्दकोश में लाने की जिद्द है.
कलम उतारू लिखने को,
स्याही उमड़ी संग चलने को,
ढूढ़ लूँगा ऐ लम्हा तुझे,
तुझको लिख जाने की जिद्द है.

                               सुरेश कुमार
                               ०४/०९/२०११


Friday, September 02, 2011

कभी-कभी ही सही...


कभी-कभी ही सही,
मेरे खयालों में आ जाया भी करो.
मेरे सूखे जहां को,
खूश्बू-ए-इश्क से महकाया भी करो.
तेरी परछाई मुझपे हो तो,
खुदको पाक़ समझूंगा.
कभी-कभी ही सही,
बनके घटा, यूँ छाया भी करो.

प्रज्वलित हुआ हूँ,
इश्क की ज्वाला में ऐ हमदम.
जलने दो अंत तक,
इसे यूँ बुझाया भी ना करो.
कांपता हूँ रात-दिन,
तन्हाईयों की ठंढ में,
कभी-कभी ही सही,
धूप-ए-मोहब्ब़त दे जाया भी करो.

तेरा दीदार जिस पल हो,
वो लम्हा मै चुरा लूंगा.
तू मेरा ख्वाब है हमदम,
जिस्म-ए-रूह बना लूंगा.
तुझे गर पा सकूं तो,
खुद को मै भी इश्क समझूंगा.
कभी कभी ही सही,
मुझे इश्क बुलाया भी करो.

                              सुरेश कुमार
                              ०२/०९/२०११