रात को मेरे बिखरे सपने,
तड़पते,बिलखते, रोते है,
सपनो को भी नींद ना आती,
तन्हाइ में क्रुन्दन करते है.
जब ये घनी काली रातें
बीभत्स रूप दिखलाती है,
सहमें सपने, बिखरे सपने,
मन के कोने में छिप जाते है.
सिसक-सिसक निरंतर रोते,
मेरी निद्रा से कहते,
उन्मूलन करो, विकट समस्या,
अप्रिय लगती है काली राते.
निद्रा, सपने से कहती,
निर्मुक्ति करो काली रातो को,
जीवन का ये हिस्सा है,
काली रातों से क्यों नही लड़ते हो ?
भय ना करो, निडर बनो,
ये तुम्हारा आत्मसात करेंगी,
अथाह हिम्मत है तुममें,
निष्क्रियता से दूर हटो.
निद्रा ने सपने को,
उसका महत्व बताया.
उसकी अभिषंगी आदत को,
कोशो दूर भगाया.
सपने ने निद्रा को गले लगाया,
काली रातों से लड़ने को,
प्रतयायित हुआ,अभ्यस्त बना.
समय-चक्र परिवर्तित हुआ,
काली रातें अब सपने से,
सहम जाती, निकट नहीं आती है,
सपने निद्रा संग,
कभी घर, कभी आंगन,
कभी छत पर टहलते है..
अब ये मेरे बिखरे सपने,
निद्रा से यूँ सहज जुड़ जाते है,
मधुर मिलन के गीत,
तन्हाई मे भी गुनगुनाते है....
सुरेश कुमार
०८/०८/२०११
6 comments:
बिखरे सपनो का दर्द बखूबी रचना में उकेरा है आपने...
बहुत सुन्दर...
bhaut hi khubsurat...
@ Sushama Ji
@ Shri Chandra Bhushan Ji
@ Sagar Ji
aap sabhi ko dil se dhanyawad...
बहुत सुन्दर रचना ,बधाई
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
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