मैं प्रेम का प्यासा पंछी,
मेरे अरमां मचलते रहे,
मौसम-ए-जुदाई की आग में,
अरमां संग जलते रहे.
बूँद-बूँद अगन टपके,
बूँद-बूँद मन भी तरसे,
हमनवां की आस में नयन,
बिन बादल बरसते रहे.
हवा का जो इक झोंका,
दिलबर की आहट दे जाता,
सुबह, दुपहरी, शाम,
रहबर की राह तकते रहे.
लम्हों के मायाजाल में,
वो फ़स गये, हम फ़स गये,
होकर हमसे दूर,
वो रोते रहे हम तड़पते रहे..
बैरी ज़माने का डर,
उन्हे भी था, हमें भी था,
रोज़ अकेले सपने में
हम उनसे मिलते रहे.
वो दिये सा जलते रहे,
हम मोम सा पिघलते रहे.
हुश्न-ए-दीदार, मेरे यार का,
जब हुआ तो मत पूछो,
मौसम-ए-इश्क की बारिश में,
हम साथ-साथ फिसलते रहे.
सुरेश कुमार
०९/०८/२०११
6 comments:
हमे तो इस रचना में कुछ सच लग रहा है।
वाह! बहुत सुन्दर...
हुश्न-ए-दीदार, मेरे यार का,
जब हुआ तो मत पूछो,
मौसम-ए-इश्क की बारिश में,
हम साथ-साथ फिसलते रहे.
हम तो आपको मान गये बस और कुछ नहीं.....
सार्थक अभिवयक्ति....
bhaut bhaavabhivaykti....
बहुत सुन्दर रचना , खूबसूरत प्रस्तुति आभार
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